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तिहासिक oष्टि से राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसड़ी) का शुभारंभ आधुनिक हिन्दी/भारतीय रंगमंच के अग्रदूत और शीर्ष रंग–गुरुû इब्राहिम अल्काजी द्वारा निर्देशित हिन्दी के मौलिक नाटककार मोहन राकेश के कालजयी नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन' के अभूतपूर्व प्रदर्शन से १९६२ से हुआ था। तब से अब तक राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय‚ इसके रंगमंडल और देश के कीÌतमान नाट्य समारोह भारत रंग महोत्सव (भारंगम) ने लंबी रंग–यात्रा तय की है। इसने देश भर में प्रशिक्षित और उत्कृष्ट रंगकÌमयों की फौज तैयार की है॥। एनएसडी उत्कृष्ट अभिनय का हॉलमार्क माना जाता है। यहां के स्नातकों ने टीवी और सिनेमा को समृद्ध एवं विकसित करने में ऐतिहासिक योगदान दिया है। अनेक मीडिया विशेषज्ञ और दिग्गज रंगकर्मी मानते हैं‚ ‘रंगमंच सिनेमा का बाप है'। टीवी और फिल्मों में गए लगभग सभी कलाकार गर्व से घोषित करते रहे हैं कि उन्होंने थिएटर किया है। विश्व भर के अनेक महान अभिनेता टीवी‚ फिल्म और रंगमंच में आवाजाही करते रहे हैं। अपने देश में भी ऐसे बहुआयामी श्रेष्ठ कलाकारों की कमी नहीं रही है‚ परंतु रानावि और भारंगम के पिछले काफी समय से जो हालात हैं‚ उन्हें देख कर दुःख होता है। काफी समय तक रानावि का नेतृत्व ऐसे कार्यकारी अस्थाई लोगों को सौंप दिया गया जिनका थिएटर तो क्या किसी प्रदर्शनकारी कला से भी कभी कोई वास्ता नहीं रहा‚ या ऐसे कलाकारों को पद सौंपे गए जो स्वयं बेशक‚ अच्छे अभिनेता हों लेकिन जिन्हें अपने फिल्मी कॅरियर के अतिरिक्त किसी और काम के लिए वक्त ही नहीं है। मैं केवल दो उदाहरण दूंगा। गत वर्ष भारंगम की समाप्ति के बाद इसके अध्यक्ष परेश रावल ने एक अंग्रेजी अखबार में प्रमोशनल फीचर के तौर पर प्रकाशित इंटरव्यू की हेडलाइन में कहा था‚ ‘हम नसीरु द्दीन शाह और ओम पुरी वाला एनएसडी बोलते हैं।' कोई संदेह नहीं कि ये दोनों कलाकार इसी संस्थान की देन हैं। नसीर अब भी थिएटर करते हैं। यह अलग बात है कि अपनी कला की श्रेष्ठता में रानावि या अल्काजी का कोई योगदान नहीं मानते। रानावि ने जो उत्कृष्ट रंगकर्मी दिए हैं‚ उनके नामों तक की जानकारी इन फिल्मी अध्यक्ष महोदय को शायद नहीं होगी। भारंगम के नाटकों के चुनाव में भी यही oष्टि दिखाई दी थी। दूसरा उदाहरण इस वर्ष के भारंगम से दो–तीन दिन पहले स्कूल के मौजूदा निदेशक चितरंजन त्रिपाठी के एक समाचार पत्र में छपे ‘बोल' नामक बाइट का है। उसमें वह कहते हैं‚ ‘एनएसडी के लिए अच्छा होगा कि शाहरु ख (खान) अतिथि के रूप में यहां आएं।' कारण यह है कि वह ‘नाटकवाला पहले हैं और सफल अभिनेता बाद में।' सभी जानते हैं कि शाहरु ख बेरी जॉन के शिष्य रहे परंतु वर्तमान निदेशक के ‘बोल' पढ़ कर अफसोस हुआ॥। फिल्म और रंगमंच में कोई विरोध नहीं है‚ न ही रंगकÌमयों के टीवी–सिनेमा में जाने में कोई बुराई है‚ लेकिन रंगमंच को फिल्म के मुकाबले कला–माध्यम के रूप में हीन मानने की कुंठा गलत है। संभव है त्रिपाठी जी का निदेशक बनना भी उनकी रंगमंचीय उपलब्धियों (ॽ) के मुकाबले उनकी फिल्मी सक्रियता पर ही आधारित रहा हो। शाहरु ख बड़े एक्टर हैं‚ स्टार हैं‚ बेरी जॉन से रंगमंच के प्रशिक्षण प्राप्त सफल अभिनेता भी हैं परंतु उन्हें ‘महान फिल्म स्टार' मानने के मुकाबले और पहले ‘नाटकवाला' मानने का कारण मुझ अज्ञानी अथवा अल्पज्ञानी की समझ से परे है। इस oष्टि से इन्होंने बेरी जॉन के ही शिष्य रहे मनोज वाजपेयी को फिल्म अभिनेता से पहले ‘नाटकवाला' कहा होता तो बात को फिर भी समझा जा सकता था! खैर‚ छोडि़ए ऐसे तो बहुसंख्य नाम लिए जा सकते हैं। ॥ मैं तो खैर अदना सा रंग–पत्रकार या नाट्यालोचक हूं और अब वयोवृद्ध होकर उतना सक्रिय भी नहीं हूं लेकिन मुझे बड़ी हैरानी हुई जब २७ जनवरी की शाम को एक नाट्योत्सव के अवसर पर राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की एक पूर्व निदेशक ने मुझसे पूछा‚‘जयदेव जी क्या आपको पता है‚ इस बार का भारंगम कब शुरू हो रहा हैॽ' मैं अवाक उनकी ओर देखता रह गया! तब मुझे याद आया कि कुछ वर्ष पहले ओलंपियाड (उसकी सफलता–सार्थकता–जरूरत की बात अलग है) के शुभारंभ के अवसर पर अपने अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त और ओलंपियाड के एकमात्र भारतीय प्रतिनिधि और रानावि के तत्कालीन अध्यक्ष रतन थियाम को भी आमंत्रित नहीं किया गया था। अपने वरिष्ठों और अग्रजों को सम्मान देने की शायद यह नई भारतीय सनातन संस्कृति है। बहरहाल‚ परंपरानुसार भारंगम के उद्घाटन के अवसर पर टिकट नहीं होता‚ दर्शकों को ‘आमंत्रित' किया जाता है। अब नये निजाम के मुताबिक शायद आपसे अपेक्षा की जाने लगी है कि आप व्यक्तिगत रूप से अधिकारियों के पास जाकर अपने लिए निमंत्रण–पत्र मांग कर प्राप्त करें। स्कूल का प्रकाशन विभाग भी है। इसकी शुरुûआत जहां तक मुझे याद पड़ता है‚ अन्य कई शुरु आतों की तरह राम गोपाल बजाज के प्रयासों से ही हुई थी। तब प्रयाग शुक्ल के संपादन में स्कूल की पत्रिका ‘रंग प्रसंग' और रंगकर्म से संबंधित पुस्तकों के प्रकाशन की योजना के अंतर्गत (जहां तक मुझे याद पड़ता है) सबसे पहले मेरी पुस्तक ‘अंधायुगः पाठ और प्रदर्शन' तथा महेश आनंद द्वारा संपादित पुस्तक ‘कहानी का रंगमंच' प्रकाशित की गई थीं। तब ‘रंग प्रसंग' और प्रकाशित पुस्तकें सहयोगी लेखकों को सम्मानपूर्वक भेंट की जाती थीं और रिव्यू के लिए तमाम पत्र–पत्रिकाओं को भी भेजी जाती थीं–ताकि उनका मूल्यांकन होता रह सके। तब से अब तक अन्य कई योजनाओं की तरह ये भी ढलान से उतरते–उतरते यहां तक आ पहुंची हैं कि बरसों से न तो पत्रिका का कोई संपादक हैं‚ और ही आरंभ से इससे जुड़े रहे लेखकों को मानार्थ प्रति भेजी जाती हैं‚ प्रकाशित पुस्तकों को कहीं भी समीक्षा/रिव्यू के लिए भेजना भी बंद हो गया है। साल–डेढ़ साल के बाद ‘रंग प्रसंग' का जो अंक भारंगम के अवसर पर आया है‚ वह भी स्कूल की नई oष्टि के अनुकूल मूलतःफिल्मों पर केंद्रित प्रतीत होता है॥। भारतेंदु और जयशंकर प्रसाद की परंपरा में आधुनिक हिन्दी रंगकर्म के कालजयी नाटककार मोहन राकेश के इस जन्मशती वर्ष के उपलIय में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय अपने सबसे बड़े और महkवाकांक्षी आयोजन ‘भारंगम' में उन्हें किस रूप में याद कर रहा हैॽ क्या आप मानते हैं कि कई ओर से सार्थक‚ प्रासंगिक और बेहद जरूरी ये सवाल पूछे जाने के बाद बरसों पुरानी अपनी ‘आधे अधूरे' की प्रस्तुति को जैसे–तैसे कर देने से देश के हिन्दी में रंगकर्म करने के लिए प्रतिबद्ध इस सर्वोच्च राष्ट्रीय नाट्य प्रशिक्षण संस्थान का दायित्व पूरा हो जाएगाॽ आशा करता हूं कि हमारे रंगकर्म के मौजूदा सूत्रधार इस संदर्भ में अवश्य कुछ सोचेंगे और करेंगे॥। द॥ एनएसडी उत्कृष्ट अभिनय का हॉलमार्क माना जाता है। यहां के स्नातकों ने टीवी और सिनेमा को समृद्ध एवं विकसित करने में महती योगदान दिया है। अनेक मीडिया विशेषज्ञ और दिग्गज रंगकर्मी मानते हैं‚ ‘रंगमंच सिनेमा का बाप है'। टीवी और फिल्मों में गए लगभग सभी कलाकार गर्व से घोषित करते रहे हैं कि उन्होंने थिएटर किया है परंतु रानावि और भारंगम के हालात देख कर दुःख होता है। काफी समय तक रानावि का नेतृत्व ऐसे लोगों को सौंप दिया गया जिनका थिएटर तो क्या किसी प्रदर्शनकारी कला से कोई वास्ता नहीं रहा या ऐसे कलाकारों को पद सौंपे गए जिन्हें अपने फिल्मी कॅरियर से ज्यादा किसी से वास्ता नहीं था ॥ जयदेव तनेजा॥
रत रंग महोत्सव की इन दिनों धूम है। दिल्ली सहित ११ नगरों के अतिरिक्त नेपाल और श्रीलंका में भी इसका आयोजन हो रहा है। आयोजक संस्था राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसड़ी) इसे बड़े सरकारी बजट के साथ आयोजित करती है‚ जिसमें विद्यालय के विद्याÌथयों‚ रंगमंडल‚ देश के दूसरे नाट्य विद्यालयों के साथ ही विभिन्न रंग संस्थाओं की नाट्य प्रस्तुतियां होती हैं। यह विशाल आयोजन है‚ मगर बजट और दूसरे संसाधन हों तो ऐसे आयोजन मुश्किल भी नहीं हैं। लेकिन हिन्दी रंगमंच केवल ऐसे प्रयासों से जीवित नहीं है। देश के कई हिस्सों में पिछले कुछ वषाç से कई ऐसे प्रयास हो रहे हैं‚ जहां सरकारी सहयोग नहीं है‚ संसाधनों की भी कमी है लेकिन जज्बा ऐसा है कि पूरे देश के रंगकÌमयों और रंगप्रेमियों का ध्यान न सिर्फ इस ओर जा रहा है‚ बल्कि हिन्दी रंगमंच को बड़ा प्रोत्साहन भी इससे मिल रहा है॥। बरेली के डॉक्टर ब्रजेश्वर सिंह पेशे से आर्थोपेडिक सर्जन हैं‚ और अपना अस्पताल चलाते हैं‚ लेकिन रंगमंच से ऐसा गहरा लगाव है कि अपने घर के ही एक हिस्से को विंडरमेयर नामक अत्याधुनिक सभागार में बदल दिया है। भव्य नाट्य समारोह आयोजित करते हैं‚ जिसमें अब तक एमके रैना‚ रंजीत कपूर‚ उषा गांगुली‚ संजय उपाध्याय‚ संजना कपूर‚ कुलभूषण खरबंदा‚ रघुवीर यादव‚ वीरेंद्र सक्सेना‚ सीमा विश्वास‚ यशपाल शर्मा‚ मानव कौल‚ मकरंद देशपांडे‚ हेमा सिंह‚ कुमुद मिश्र सहित रंगमंच और फिल्म जगत के कई चÌचत लोग नाटक कर चुके हैं। उन्होंने रंग विनायक नाट्य संस्था बनाई जिसके ज्यादातर रंगकर्मी और कार्यकर्ता उनके अस्पताल के ही लोग हैं। इस बार जब वे यहां अपने संसाधनों से १५वां वाÌषक नाट्य समारोह कर रहे हैं‚ तो उन्होंने इसे प्रतियोगितात्मक करते हुए पुरस्कार देने का निर्णय भी किया है। अभी तक ऐसे अवार्ड मेटा में ही मिलते हैं। २३ फरवरी से शुरू हो रहे इस समारोह में ७५ हजार और ५० हजार रु पये धनराशि के पुरस्कार दिए जाएंगे। समारोह के अतिरिक्त वे समय–समय पर नाट्य प्रस्तुतियां भी कराते हैं। उनकी रामलीला भी काफी लोकप्रिय है। रंगमंच से जुड़ाव के कारण वे नाटक भी लिखते हैं‚ और ‘पैलडिन' एवं ‘जिंदगी जरा सी है' नाटक लिख चुके हैं। उन्हें उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी का अकादमी अवार्ड भी मिल चुका है। ॥ उधर‚ गोरखपुर में श्रीनारायण पांडेय ने रंगमंच का जो माहौल बनाया है‚ उसने एनएसड़ी को भी प्रभावित किया है। भारंगम के लिए गोरखपुर का भी चुनाव हुआ है। पांडेय अपने अभियान थिएटर ग्रुप के माध्यम से नगर के चिकित्सक डॉक्टर हर्षवर्धन राय के साथ मिल कर न सिर्फ भव्य गोरखपुर रंग महोत्सव का आयोजन करते हैं‚ बल्कि बड़ी संख्या में युवाओं को रंगकर्म के लिए प्रेरित भी कर रहे हैं। उनके प्रयासों के कारण ही गोरखपुर के युवा रंगकÌमयों का चुनाव एनएसड़ी‚ देश के उसके विभिन्न केंद्रों‚ पुणे के भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान‚ भोपाल स्थित मध्य प्रदेश नाट्य विद्यालय‚ भारतेंदु नाट्य अकादमी तथा अन्य प्रशिक्षण संस्थानों में हो रहा है। ॥ लखनऊ में पुश्तैनी होटल व्यवसाय से जुड़े और फिर फिल्मों के लाइन प्रोड्यूसर एवं विज्ञापन निर्माण से जुड़े भूपेश राय ने जब यहां रेपर्टवा थिएटर फेस्टिवल की शुरुûआत की तो यह लखनऊ के रंग परिवेश के लिए एक बिल्कुल ही अलग तरह का अनुभव था। उन्होंने पेशेवर नाट्य मंडलियों को यहां नाटकों के लिए बुलाया। टीवी और फिल्म कलाकारों से सजे इन नाटकों को देखने के लिए जिस प्रकार भीड़ उमड़ी और लोगों ने महंगे टिकट लिए और सौ रु पये का टिकट बेंच पाने में एड़ी–चोटी लगा देने वाली नगर की नाट्य संस्थाओं के लिए यह अचरज का विषय था। सालाना जलसे के साथ ही उन्होंने बीच–बीच में नाटकों के मंचन के कई दूसरे अवसर भी निकाले। प्रयागराज में अजीत बहादुर ने महंगे सभागारों का प्रतिवाद करते हुए अपने घर को नाट्य प्रस्तुतियों के लिए जिस प्रकार समानांतर व्यवस्था में बदला है‚ वह दर्शकों के बैठने के लिए लिहाज से छोटा जरूर है‚ लेकिन इसने नगर में रंगमंच के प्रति जुनून रखने वाले युवाओं को प्रोत्साहित जरूर किया है। अजीत का घर उन बहुत सारे युवा रंगकÌमयों की शरणस्थली है‚ जिनके पास नाटकों के लिए संसाधन नहीं हैं। यहां २५ से अधिक नाटकों के मंचन हो चुके हैं। देश के विभिन्न नगरों में ऐसे रंगरेज हिन्दी रंगमंच को प्रोत्साहित करने में लगे हैं। उनकी सफलता संसाधनों पर समर्पण की जीत है। द॥
हारों का मौसम प्रकृति का सबसे सुंदर संदेश लेकर फिर से आ गया है। ऋतुओं पर आधारित त्योहारों के इस देश में छह ऋतुएं आती हैं। इनमें बसंत ऋतु की शुरुûआत बसंत पंचमी के त्योहार से होती है। अपनी विशेषताओं के कारण इसे ऋतुराज कह कर सम्मानित किया जाता है। उत्तर भारत में बसंत फरवरी–मार्च और अप्रैल के बीच में अपनी सुंदरता बिखेरता है। देसी महीनों की बात की जाए तो माघ माह की पंचमी से लेकर फागुन और चैत्र महीने बसंत ऋतु के माने गए हैं। फागुन साल का आखिरी महीना है‚ और चैत्र पहला। इस प्रकार देसी पंचांग के वर्ष का अंत और प्रारंभ बसंत में ही होता है॥। बसंत ऋतु के आने पर सर्दी कम हो जाती है। मौसम सुहावना हो जाता है। बसंत के आगमन के साथ समस्त प्राणी जगत में नवजीवन एवं नवचेतना का संचार होता है। वातावरण में चारों ओर मादकता का संचार होने लगता है तथा प्रकृति का सौंदर्य निखरने लगता है। शरद ऋतु में वृक्षों के पुराने पत्ते सूख कर झड़ जाते हैं‚ लेकिन बसंत की शुरुûआत के साथ ही पेड़–पौधों पर कोपलें फूटने लगती हैं। नये पत्ते आने लगते हैं। आम बौरों से लद जाते हैं। चारों ओर रंग–बिरंगे फूल खिल जाते हैं। फूलों की सुगंध से धरती का वातावरण महकने लगता है। खेतों में गेहूं की सुनहरी बालें आ जाती हैं। दमकते सरसों के पीले फूलों से भरे खेत देख कर लगता है जैसे प्रकृति ने धरती को पीली चादर से सजा दिया हो। वन में टेसू के फूल आग के अंगारे की तरह लहक उठते हैं। पेड़ों की हरियाली अपनी तरफ आकÌषत करती है। पेड़ों की डालियों पर फुदकती कोयल कहू–कुहू का राग छेड़ देती है। फूलों पर भौरों का गुंजन और रंग–बिरंगी तितलियों की भागदौड़ से वातावरण सराबोर हो जाता है॥। धरती पर रंग और खुश्बू वातावरण में माकदता का ऐसा संचार करते हैं कि उदास से उदास मन भी प्रफुल्लित हो उठता है। शायद इसी वातावरण को देख कर उर्दू के प्रसिद्ध शायर फिराक गोरखपुरी ने अपनी गजल का यह शेर लिखा है–॥ नौरस गुंचे पंखडिÃयों की नाजुक गिरहें खोले हैं ॥ या उड़ जाने को रंगो–बू गुलशन में पर तोले हैं ॥ बसंत का मौसम जीवन में सकारात्मक ऊर्जा‚ आशा और विश्वास जगाता है। जीवन में ऐसा भाव बना रहे इसके लिए ज्ञान की आवश्यकता होती है और यही कारण है कि इसी ज्ञान की प्राप्ति के लिए बसंत का आगमन विद्या की देवी सरस्वती के पूजन से होता है। वास्तव में बसंत का मौसम व्यक्ति को नये सिरे से जीवन शुरू करने का संदेश देता है। पीछे जो कुछ भी हुआ उसको भूल कर नई शुरुûआत की दिशा दिखाने का काम बसंत करता है। ॥ पतंग देतीं >ंचाइयों को छूने की प्रेरणा–इसी मौसम में देश के कई हिस्सों में पतंगबाजी की जाती है और कामना की जाती है कि जैसे आकाश में पतंग आगे और आगे बढ़ती है वैसे ही हमारा जीवन आगे की ओर बढ़ता जाए और रंग–बिरंगे रूप में हम जीवन की नई ऊंचाइयों को छू लें। देश का मुख्य त्यौहार होली भी बसंत ऋतु में आता है। होली प्रतीक है–अल्हड़ता का‚ उमंग का‚ नये रंगों का। बसंत में होली के माध्यम से जीवन में उत्साह का संचार होता है। भारतीय संगीत‚ साहित्य और कला में इसे महkवपूर्ण स्थान प्राप्त है। फिल्मों में भी बहार के गीतों की कमी नहीं है। संगीत में एक विशेष राग बसंत के नाम पर बनाया गया है–जिसे राग बसंत कहते हैं। ॥ पौराणिक कथाओं के अनुसार बसंत को कामदेव का पुत्र कहा गया है। प्रकृति के किसी भी कण में अगर सरसता है‚ और वह कहीं दबी–छिपी पड़ी है‚ तो बसंत उसमें ऊर्जा का संचार कर देता है। बसंत निर्जीव को सजीव बना कर फूट पड़ता है। बसंत उत्सव है–संपूर्ण प्रकृति में प्राण रूपी ऊर्जा के विस्फोट का। यह प्रतीक है–सृजनात्मक शक्ति के नव पल्लवन का। स्कूली परीक्षाओं के संदर्भ में बात करें तो पढ़øने के लिए भी यह मौसम बेहद अनुकूल है। बसंत में हमारे शरीर के पांचों तत्व अपना मोहक रूप दिखाते हैं। जिस सर्दी के कारण ठिठुरन थी–अब वह ठिठुरन नहीं रही और खुले आकाश में उड़़ने का मन करता है। किसान खेतों में पीले फूल देख कर खुश होता है‚ तो धनी व्यक्ति प्रकृति के इस नये सौंदर्य में खो जाना चाहता है। निर्धन व्यक्ति भी ऐसे मौसम में ठंड से निजात पाकर खुश होता है॥। द॥ अरुûण कुमार कैहरवा॥
रत में आदि काल से वृक्षों की पूजा की जाती है। लोगों में आस्था रहती है कि वृक्षों की पूजा करने मात्र से ही मनुष्य सुख–शांति प्राप्त करता है। प्राचीन काल में वृक्षों की पूजा के लिए राजस्थान में आंदोलन भी चलाया गया था‚ जिसको दबाने पर लोगों ने अपने प्राणों की आहुति तक दे दी थी। ऐसा ही करीब एक हजार वर्ष पुराना एक चमत्कारी पेड़ राजस्थान के वृंदावन (झुंझनूं) जिले से लगभग २३ किलोमीटर दूर भंडूदा में है‚ जहां हरिदास के शिष्य बाबा पुरु षोत्तम दास ने राधा–कृष्ण की आराधना की और उत्तर प्रदेश से इतर राजस्थान में भी एक वृंदावन बसाया। ॥ राजस्थान में काटली नदी के पास जिस पेड़ के नीचे बैठ कर बाबा पुरु षोत्तम दास ने ध्यान लगाया उसकी पांच शाखाएं होने के कारण कालक्रम में वह पंचपेड़ के नाम से विख्यात हुआ। आज भी पंचपेड़ हरा–भरा है। पंचपेड़ के प्रति आस्था और बाबा पुरु षोत्तम दास पर विश्वास रखने वाले भक्तों का जीवन भी सुख–शांति के लिहाज से उतना ही हरा–भरा रहता है। हर साल फाल्गुन शुक्ल पक्ष की द्वादशी और भादो कृष्ण पक्ष की अष्टमी यानी कृष्ण जन्माष्टमी पर राजस्थान के वृंदावन में विराट और विशाल मेला लगता है‚ जिसमें देश के विभिन्न प्रांतों के अलावा पड़ोसी देश से भी हजारों–हजार भक्तों पहुंचते हैं‚ और नाना प्रकार के धाÌमक आयोजनों के अलावा ‘ऊं श्री पुरुûषोत्तम नमो नमः'‚ ‘पंचपेड़ सरकार की जय'‚ और ‘काटली वाले बाबा की जय' जैसे उच्चारण से वातावरण को भक्तिमय बना देते हैं। होली और जन्माष्टमी पर लगने वाले मेले के अलावा हर महीने की शुक्ल पक्ष की एकादशी को पंचपेड़ के समीप बने बाबा के भव्य मंदिर में भजन–संध्या और द्वादशी की ज्योत ली जाती है‚ जिसमें शामिल होने और बाबा के दरवार में हाजिरी लगाने कई भक्तगण पहुंचते हैं। ॥ बाबा के पूवर्जों और मंदिर और पंचपेड़ के पुजारियों के मुताबिक श्रीबिहारीजी महाराज के अनन्य भक्त स्वामी हरिदास के शिष्य संत शिरोमणि बाबा पुरु षोत्तमदास ने सैकड़ों वर्ष पहले अपनी तपस्या के बल पर इस गांव को बसाया था। प्रति वर्ष कृष्ण जन्मोत्सव पर देश के कोने–कोने और विदेशों से भी काफी भक्तजन दर्शनार्थ और पर्यटन के उद्देश्य से यहां आते हैं। बाबा के चरणों में श्रद्धा सुमन चढ़ा कर मनौतियां मांगते हैं। गांव के जोहड़ में बाबा पुरु षोत्तमदास की तपोभूमि में पंचपेड़ दर्शनीय और पूज्यनीय स्थल के रूप में दिन–प्रतिदिन ख्याति प्राप्त कर रहा है॥। लगभग एक बीघा में यह वृक्ष फैला है‚ जिसकी पांच शाखाएं एक ही जड़ से विकसित हुइÈ जो आपस में जुड़ी हुई हैं। बाबा के भक्तों का मानना है कि इस पेड़ के मध्य बैठ कर बाबा ने ध्यानमग्न होकर राधा–कृष्ण की अराधना कर उनका आशीर्वचन प्राप्त किया था। कहते हैं कि बाबा का जन्म लगभग पांच सौ वर्ष पूर्व सिद्धमुख (राजगढ़‚ चूरू‚ राजस्थान) में हुआ था। उनका ध्यान बचपन से ही ईश्वरीय भक्ति में था। तब भी उनके माता–पिता ने उनका विवाह ढांचेलिया परिवार में कर दिया। एक पुत्र और एक पुत्री को जन्म देने के बाद बाबा गृहस्थ जीवन छोड़कर वृंदावन (उत्तर प्रदेश) जाकर श्रीकृष्ण भक्ति में लीन हो गए। उनकी विद्धता को देख कर अन्य सप्त तपस्वी उनसे विद्वेष भाव रखने लगे। बाबा को यह रास नहीं आया और वहां से गुरु हरिदास जी से आशीर्वाद लेकर भारत–भ्रमण पर निकले। अमरावती पर्वत मालाओं पर विचरण कर एकता का संदेश देते हुए राधा–कृष्ण की मूÌत लेकर एकांत स्थान की तलाश में निकल पड़े। संयोगवश काटली नदी के किनारे जल और वृक्ष को देख कर उन्हें आनंद की अनुभूति हुई और इसे ही वृंदावन मान कर बाबा यहीं ध्यान में बैठ गए। उन्होंने इसका नाम वृंदावन रखा। पंचपेड़ को पंच परमेश्वर मान कर तपोभूमि के रूप में विख्यात करवाया। ॥ किवंदती है कि बाबा सुबह–शाम आरती के वक्त जब शंख बजाते थे तो एक गाय पेड़ के नीचे आकर खड़ी हो जाती थी। बाबा उसके नीचे कमडंल रखते तो वह कमंडल गाय (कामधेनु) के दूध से भर जाता था। लोगों का मानना है कि इस पेड़ के नीचे मांगी गई मनौती पूर्ण होती है। बाबा के भक्तों ने बताया कि वृंदावन (भडुंदा) को पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने की योजना है। यहां भारत के तमाम राज्यों के साथ ही नेपाल आदि देशों से भी दर्शनार्थी आते हैं। बाबा का एक मंदिर कोलकाता पाथुरियाघाट स्ट्रीट में भी है‚ जहां हर साल बसंत पंचमी को बसंत महोत्सव और मंदिर का स्थापना दिवस मनाया जाता है। इस बार कोलकाता मंदिर में रविवार‚ २ फरवरी को धूमधाम से मंदिर का स्थापना दिवस मनाया जाएगा। ॥ द॥ शंकर जालान॥
भारत को पश्चिमी ऐतिहासिक परिप्रेIय में देखें तो यह औपनिवेशिकता को तार्किक ठहराने‚ उत्पीड़़न और पीड़़ा से भरा पड़़ा है‚ इसमें भारत की धार्मिक सभ्यता और मूल्यों का नकार है। भारत की सभ्यतागत पहचान और निष्ठा का ध्वंस है। यह योजनाबद्ध संहार है। ॥ डे़विड़ फ्रॉउले‚ वेद मर्मज्ञ /ङ@ड्डaध्त्ड्डढद्धawथ्eyध्e/च्ड्ड॥
श्यों का सजीव चित्रण वास्तविकतावादी होने के साथ–साथ है समकालीन कला में प्रयोगवाद को चुनौती देता है। इस यथार्थवादी कला में समकालीन जीवन का सटीक‚ सजीव निरुûपण यथार्थ कलात्मकता से स्पंदन कराता है। कला की इसी धारा को आगे बढÃाते हुए सै£ोन आर्ट द्वारा खुले आकाश की छांव तले हरी–भरी सतह पर तैरती प्रतीत होतीं कलाकृतियां रंग एवं आकृतियों के प्रयोग से स्पेस को संतुलित करती हैं। इन शिल्पों में कलाकारों की रचनात्मक गहराई कलात्मक रूप से oष्टिगोचर है। ‘ऐल्कमीस ऑफ फार्म' शीर्षक से प्रदÌशत समूह प्रदर्शनी में देश के छह विपुल कलाकारों के शिल्पों को सुप्रसिद्ध कला लेखिका एवं कला इतिहासकार उमा नायर ने क्यूरेट किया है। उमा नायर ने इन मौलिक मूÌत शिल्पों को खुले आकाश तले प्रदÌशत करकेअपने कलात्मक oष्टिकोण को वृहद् स्वरूप दिया है। संभवतः ये शिल्प किसी कला दीर्घा के भीतर होते तो उनकी भव्यता का यह रूप कम आकृष्ट करता। ॥ प्रख्यात भारतीय कलाकारों कृष्ण खन्ना‚ थोटा वैकुंठम‚ हिम्मत शाह सहित फणींद्र नाथ चतुर्वेदी‚ धनंजय सिंह और यशिका सुगंध जैसी युवा समकालीन भारतीय कलाकारों की समृद्ध कलात्मकता को अभिव्यक्त करते हैं। तेलंगाना की महिलाओं के स्त्रीत्व को आकर्षक रूप में परिकल्पित करते थोटा वैकुंठम ने अपने अप्रतिम शिल्प को ऑटोमोटिव पेंट के साथ रेजिनेटेड फाइबर ग्लास में निÌमत किया है‚ जो भव्य शिल्प के माध्यम से भारत की विविध संस्कृति को भी दर्शाता है। वैकुंठम द्वारा गढ़े गए शिल्पों में चटख रंग के प्रयोग से बारीक स्ट्रोक और पारंपरिक अलंकृत आभूषण परिपूर्ण दक्षता को दर्शाते हैं। चार दशकों से भी अधिक समय से कलाकर्म में सक्रिय मूर्धन्य कलाकार वैकुंठम सहस्राब्दी के विचारशील रचनाकार भी हैं। प्रदÌशत शिल्प पूर्व कल्पना में रचे शिल्पों का ही विस्तार है॥। मूर्धन्य कलाकार कृष्ण खन्ना का शिल्प शहरी जीवंत सा प्रतीत होता है। ऑटोमोटिव पेंट के साथ रेजिनेटेड फाइबर ग्लास में निÌमत खन्ना का ‘सेवानिवृत्त कैप्टन रमेश कुमार अकॉÌडयन वाले' शीर्षक से प्रदÌशत शिल्प आकर्षक है‚ जो शिल्प के बहाने विचारों‚ भावनाओं और संदेशों की विस्तृत „ाृंखला को व्यक्त करता है। भारत की विविध कलात्मकता को दर्शाते कृष्ण खन्ना की संवेदनशीलता उनके व्यक्तित्व से समझी जा सकती है कि कला समय‚ स्थान‚ व लोगों को हरा देती है। ‘कला को सुंदर तस्वीर से परे जाना चाहिए। मेरे लिए कला परम आनंद है।'॥ समकालीन कलाकारों के विस्तृत आकार के शिल्पों को देश की सुप्रसिद्ध कलाविद् उमा नायर द्वारा क्यूरेट की गई प्रदर्शनी को रंग‚ रूप‚ और बनावट के माध्यम से देखना विस्मिृत ही नहीं करता वरन ये शिल्प कलाकारों के यथार्थवादी कला के oष्टिकोण द्वारा भावात्मक अभिव्यक्ति को संदÌभत करते हैं। यही कारण है कि खन्ना‚ हिम्मत शाह‚ थोटा वैकुंठम‚ धनंजय सिंह‚ फणींद्र नाथ चतुर्वेदी और यशिका सुगंध सहित समकालीन भारतीय कलाकारों की मूÌतयों से प्रेक्षक मंत्रमुग्ध होते हैं। प्रदर्शित विशालकाय शिल्प अपने रंगों और बनावटों के माध्यम से अभिव्यक्त होते हैं‚ जिन्हें रंगाकारों की शिल्पाभिव्यक्ति भी कहा जा सकता है। सहज‚ चेतन सृजन की oष्टि से व्यक्त करते शिल्प जीवन शैली को भी व्यक्त करते हैं। ॥ सुंदरता के प्रतीक के रूप में प्रतिध्वनित करते शिल्प अंतर्मुखी और आत्मनिहित प्राणियों के प्रतिबिंब हैं। फणींद्र नाथ चतुर्वेदी इंद्रधनुषी रंग की चमकदार स्टेनलेस स्टील से बनी तितली की मूÌत‚ उड़ान भरते सपनों का प्रिज्म है‚ जो अपने जीवंत पंखों की हर फड़फड़ाहट में जीवन के रंगों के स्पेक्ट्रम को कैद करती है। धनंजय सिंह कहते हैं‚ ‘मुझे लगता है कि पेड़ का एक रूप है जो धरती और आकाश‚ दोनों को जोड़ता है। मुझे यह एक ही रूप में सकारात्मकता और नकारात्मकता‚ दोनों का सह–अस्तित्व लगता है।' यशिका सुगंध ने प्रत्येक रूप के भीतर आंतरिक सत्य की खोज में अपनी कला के प्रवाह को एकांत में खोजा होगा‚ ऐसा प्रतीत होता है। वह अपने शिल्प में कोमल भावनाओं को महसूस करती हैं। प्रदर्शनी को ९ फरवरी तक देखा जा सकता है॥। द॥